क्षेत्रिय दल अपने अस्तित्व के लिए कर रहे हैं जातीय जनगणना की मांग – प्रो. जे.एस. राजपूत

Regional parties are demanding caste census for their survival - Prof. J.S. Rajput

भारत में अधिकांश राजनीतिक दल छोटे लक्ष्यों पर चल रहे हैं और राष्ट्रीय लक्ष्यों से दूर हो रहे हैं। क्षेत्रिय दल अपने अस्तित्व के लिए कर जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं। चुनावों में जाति जैसे मुद्दे को खूब उछाला जाता है। प्रसिद्ध लेखक, शिक्षाविद और एनसीआरटी के पूर्व निदेशक पद्मश्री प्रो. जे.एस. राजपूत ने विशेष साक्षात्कार में भारतीय समाज, जाति प्रथा, आरक्षण, राजनीतिक दलों की भूमिका, धर्म परिवर्तन, जातीय जनगणना, समान नागरिक संहिता सहित वर्तमान भारतीय राजनीति पर डॉ. निशा कुमारी से विस्तार से चर्चा की है। इस साक्षात्कार के प्रमुख अंश है –

सवाल – चुनावों में राजनीतिक दल जाति को खूब उछालते हैं, आप जातियों को किस रूप में देखते हैं ?

जवाब- जातियां एक विकृति है जो अस्वीकार्य परिस्थिति उत्पन्न होने के कारण पैदा हुई है। इस तरह की स्थितियां केवल भारत में ही नहीं हुई, बल्कि यूरोपीय देशों में भी लंबे समय तक महिलाओं को अस्वीकार्य परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था, जबकि बाईबिल में ऐसा नहीं लिखा था। इसी तरह से भारत में धर्म के मूल में जातियां नहीं थी, बल्कि ये विकृति है, जो बाद में पैदा हुई। भारत में अधिकांश राजनीतिक दल छोटे लक्ष्यों पर चल रहे हैं और राष्ट्रीय लक्ष्यों से दूर हो रहे हैं। जातियों के जो समूह बने थे उसमें एक एमवाई समूह था, गुजरात में खाम समूह था, ये सब राष्ट्र के हित में नहीं है और जिस दिन भारत के युवा यह समझ लेंगे कि राजनीतिक दल वोट पाने के लिए जातियों का समूह बना रहे हैं, वे राष्ट्र के भविष्य के हित में कार्य नहीं कर रहे हैं, उस दिन ऐसे दलों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

सवाल – क्या राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना होनी चाहिए ?

जवाब – जातीय जनगणना समाज में जातियों के बीच तो दूरियां बढ़ाएंगी ही, जातियों के अंदर भी विभिन्न समूहों के बीच दूरियां बढ़ा देगी। जातीय जनगणना एक राजनीतिक पैंतरा है। राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह देश के लोगों को विभिन्न आधारों पर बांटने का काम करेगी। क्षेत्रिय दल छोटे लक्ष्यों को पाने के लिए इसका समर्थन करते हैं। जातीय जनगणना सहित तमाम मुद्दों पर संविधान सभा में विस्तार से चर्चा की गई थी। उस समय संविधान के निर्माता डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि एक निश्चित समय के बाद आरक्षण का समापन हो जाना चाहिए, समान नागरिक संहित लागू होनी चाहिए, लेकिन राजनीतिक दल आज अपने फायदे के लिए इसका विरोध कर रहे हैं।

सवाल – क्या आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए ?

जवाब – दुनिया में ऐसी कोई भी चीज नहीं है, जिसकी समीक्षा नहीं होती है, तो फिर आरक्षण की समीक्षा क्यों नहीं होनी चाहिए। आरक्षण का लाभ पीढ़ी-दर-पीढ़ी कुछ खास लोग उठा रहे हैं। कई पीढ़ियों से मंत्री रहे, करोड़ो-अरबों की संपत्ति के मालिक लोगों के परिवार वाले भी आरक्षण का लाभ उठा लेते हैं। इसकी समीक्षा होनी चाहिए और ऐसे लोगों से आरक्षण का लाभ ले लिया जाना चाहिए, ताकि समाज में मतभेद नहीं रहे। भारत में आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए कि इसका कितना उपयोग हो रहा है और जरूरतमंद लोग इसका कितना लाभ उठा पा रहे हैं।

सवाल – भारत में जातिप्रथा कायम रहने की क्या वजह है ?

जवाब – भारत की एक संस्कृति है और उस संस्कृति में विविधता को स्वीकार किया गया है, जिसे हमें पूरी तरह से स्थापित करना है। जब दो राष्ट्र के सिद्धांत को स्वीकार किया गया था, जिसके आधार पर देश को विभाजित किया गया था, उस स्थिति से मानसिक स्तर पर भारत क आगे निकलना है, लेकिन यह दुर्भाग्य है कि भारत के नेताओं ने इसे जातियों में बदल दिया, जबकि संविधान ऐसा नहीं चाहता था। संविधान में तो जातिप्रथा और छूआछूत के उन्मूलन की बात कही गई है, लेकिन नेताओं ने इसे उंची जाति और नीची जाति में बांटने की कोशिश की है।

सवाल – जातियों के समापन के लिए किसकी भूमिका महत्वपूर्ण है ?

जवाब – भारत से जातियों के उन्मूलन करने में सरकार को कोई बड़ी सफलता नहीं मिलने वाली है। सरकार ने नियम बना दिया है, उसका पालन होना चाहिए। किसी जाति अथवा धर्म के आधार पर किसी का उत्पीड़न हो रहा हो तो सरकार को इसे सख्ती से रोकना चाहिए और शेष चीजें समाज पर छोड़ दिया जाना चाहिए। समाज जिन चीजों को स्वीकार करेगी, वह रहेगा और जिन चीजों को समाज ने अस्वीकार्य कर दिया है, उनका उन्मूलन अपनेआप हो जाएगा।

सवाल – जाति के संदर्भ में शिक्षा की भूमिका हो सकती है ?

जवाब – जातियों के महत्व के अस्वीकार्य किया जाना चाहिए, छूआछूत के उन्मूलन को भारत में नियमों में ही नहीं, बल्कि व्यवहार में भी लोगों ने अपना लिया है। थोड़ा-बहुत छूआछूत जो बचा है, वह जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ेगा, समाप्त हो जाएगा। भारत में 1950-53 में 18 प्रतिशत साक्षरता थी, वर्तमान में साक्षरता दर 80 प्रतिशत पहुंच गई है। 1950 के मुकाबले आज छूआछूत लगभग समाप्त हो गयी है, लेकिन एक दूसरी सामाजिक समस्या यह आयी कि इस दौरान भारत की आबादी लगभग 100 करोड़ बढ़ गयी है।

सवाल – क्या समान नागरिक संहिता को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाना चाहिए ?

जवाब – समान नागरिक संहिता की बात संविधान में भी है, सुप्रीम कोर्ट ने भी इसके पक्ष में बोला है और विश्व के कई देशों में यह लागू है। भारत सरकार का यह दायित्व है कि वह समान नागरिक संहिता को लागू करे।

सवाल – भारत में हो रहे धर्म परिवर्तन की घटनाओं पर आपका क्या विचार है ?

जवाब – भारत की जो प्राचीन संस्कृति है, वह यही कहती है कि हम किसी को धर्म परिवर्तन नहीं करवाते हैं। पंथ बदलने की परंपरा भारत में है ही नहीं, जो बाहर से आए हैं, उन्हीं पंथों में यह बात कही गई है। भारत में ईस्लाम बाहर से आया उसमें कहा गया है कि धर्म परिवर्तन करवाईए, क्रिश्चयन के उपर भी यह दायित्व है कि वे अपने धर्म में लोगों को शामिल करें। भारत में उपदेश तो दिया जाता है, लेकिन उसमें वास्तविक चीजें बताई जाती हैं, न कि धर्म परिवर्तन के लिए उकसाया जाता है।

(प्रो. जे.एस. राजपूत प्रसिद्ध लेखक, शिक्षाविद, एनसीआरटी के पूर्व निदेशक और पद्मश्री से सम्मानित हैं)

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