भारत में बुनियादी शिक्षा व्यवस्था में सुधार की है जरूरत !

दिवेश रंजन :

आज देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था है, एक पैसे वालों और सक्षम लोगों के लिए जो अच्छे से अच्छे इंग्लिश मीडियम के स्कूल में पढ़ कर देश के उच्च संस्थानों में जाकर अपना भविष्य संवारते हैं और दूसरा गरीबों की जिनका सरकारी स्कूलों से पढ़कर अपना भविष्य बनाने के जदोजहद में उच्च संस्थानों में पढ़ना महज एक सपना रह जाता है.

देश में आजादी के बाद से जहां ‘राष्ट्रीय महत्व के संस्थान’ कहे जाने वाले उच्च संस्थानों का निर्माण हुआ, वहीं प्राथमिक शिक्षा बदहाल होती गई. सरकारी स्कूली व्यवस्था इस तरह से कमजोर हो गयी कि सरकारी स्कूल के बच्चे इंग्लिश मीडियम के प्राइवेट स्कूल के बच्चों से पिछड़ने लगे, जिससे प्राइवेट इंग्लिश मीडियम स्कूल की महत्ता बढ़ने लगी. सत्तर- अस्सी के दशक में पहली बार सरकार ने ‘सर्व शिक्षा अभियान’ चलाया, फिर ‘मिड डे मिल’ का भी प्रबंध किया गया और उसके उपरांत आने वाली हर सरकार ने कुछ-न-कुछ प्रयास किया, लेकिन बुनियादी शिक्षा व्यवस्था में कुछ ज्यादा परिवर्तन नहीं आया. साल 2009 में ‘शिक्षा का अधिकार कानून’ (Right to Education) बना, लेकिन इतने सालों बाद भी यह सभी राज्यों में सभी प्राइवेट स्कूलों में लागू नहीं हो पा रहा है.

उधर आई.आई.टी और आई.आई.एम. से पढ़ने के बाद अधिकतर नौजवान बाहर का रुख करने लगे हैं. इसका सबसे बड़ा कारण है कि अपने देश में उद्योग धंधों की कमी है. ऐसे हर एक प्रॉफेश्नल को शिक्षा देने में सरकार के करोड़ों रूपये खर्च हो रहे हैं, फिर देश का बौद्धिक नुकसान भी तेजी से हो रहा है.

क्या भारत जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा उठा पायेगा ?

आज भारत विश्व का सबसे जवान देश है. भारत की आबादी लगभग 136 करोड़ है, जहां 62 फीसदी से अधिक लोग 15 से 59 साल के हैं और 35 फीसदी लोग 19 वर्ष से कम उम्र के हैं. ऐतिहासिक रूप से यह देखा गया है कि इस तरह के जनसांख्यिकीय लाभांश ने कई देशों के समग्र विकास का 15% तक योगदान दिया है. कई एशियाई देशों-जापान, थाईलैंड, दक्षिण कोरिया और हाल ही में चीन ने अपने तीव्र विकास और विकास में इसका लाभ उठाया है, लेकिन क्या भारत जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा उठा पायेगा ?

इतने बड़े जनसंख्या के लिये देश में पर्याप्त रोजगार नहीं है, औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं है, अभी भी बहुत-से राज्यों में उद्योग धंधे नगण्य है, जो कि इतने बड़े मानव संसाधन का उपयोग करने में भारत को असक्षम बनाता है. 50% से अधिक छात्रों में स्कूली पढ़ाई के पांच साल के बाद भी बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक कौशल की कमी है. हमारे देश के सरकारी स्कूल के छठी और सातवीं के आधे से अधिक बच्चे सही से रीडिंग नहीं कर पाते हैं और जोड़ तक नहीं जानते हैं.

भविष्य में भारत की संभावनाएं

आज जब विश्व चौथी औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहा है, जहां आर्टिफ़िश्यल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स टेकनोलॉजी एक सुनहरा भविष्य है, परंतु इन संभावनाओं का फायदा हम तभी उठा पाएंगे जब अधिक-से-अधिक बच्चें गणित में औसतन अच्छे हों. इतनी बड़े आबादी की उचित शिक्षा और पर्याप्त रोजगार की व्यवस्था नहीं होने पर श्रृंखलाबद्ध रूप में बहुत सारी समस्याओं की शुरुआत हो जाती है.

एनसीईआरटी की पुस्तकें बहुत अच्छी है, उसमें बच्चों को सिखाने के लिये बहुत सारे क्रियाकलाप दिये होते हैं, लेकिन उन क्रियाकलापों को करवा पाना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि एक टीचर को एक कक्षा में 60 से 100 बच्चे देखने होते हैं. यूरोप और दूसरे विकसित देशों में एक शिक्षक पर 10 से 12 बच्चों का दायित्व होता है. छात्र-शिक्षक अनुपात को हमारे यहां सही किये जाने की जरूरत है.

भारत में शिक्षा पर होनेवाला व्यय

भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6% शिक्षा पर खर्च करने की आवश्यकता है, ऐसा 1968 से प्रत्येक राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया है, लेकिन 2019-20 में भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 3.1% शिक्षा पर खर्च किया. चीन की आबादी लगभग भारत के करीब है, वहीं चीन का 2020 का शिक्षा बजट भारत के 2021 के शिक्षा खर्च के तुलना में 4 गुना अधिक है. प्रत्येक वर्ष प्रति छात्र पर खर्च किये जाने वाली रकम भारत में बाकी देशों की तुलना में बहुत नगण्य है. आईएमडी बिजनेस स्कूल की एक रिपोर्ट से पता चला है कि भारत प्रति छात्र सार्वजनिक व्यय के मामले में 62 वें स्थान पर है.

शिक्षा व्यवस्था में राज्य सरकारों का सहयोग जरूरी

चुंकि शिक्षा केंद्र और राज्य दोनों के अधीनस्थ विषय है, अतः यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि राज्य सरकार की मंशा ना हो. इस मामले में दिल्ली राज्य की शिक्षा व्यवस्था में संसाधनात्मक और संरचनात्मक नवीनता सबसे बड़ा उदाहरण है. वर्तमान केंद्र सरकार ने देश की बुनियादी शिक्षा की जमीनी हालात को समझते हुए पिछले साल नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति लायी, जिसके अब एक वर्ष पूरे हो गये हैं, लेकिन इसके सफल क्रियान्वयन के लिये केंद्र और राज्य सरकारों को परस्पर प्रतिबद्ध होने की जरूरत है.

बुनियादी शिक्षा व्यवस्था और औद्योगिक शिक्षा में सरकार को अच्छे बजट की जरूरत है और इसके लिए यदि उच्च शिक्षण संस्थानों की बजट में कटौती करने की जरूरत पड़े तो वो भी किया जा सकता है. उच्च संस्थानों जैसे आई. आई.टी. और आई. आई.एम. को वित्तीय रूप से स्वावलंबी संस्थान बनाया जा सकता है. अलूमनी ग्रुप्स की सहायता और प्रोजेक्ट बेस्ड इंडस्ट्री, आदि से वित्तीय व्यवस्था का संचालन किया जा सकता है और पहले से ही कुछ उच्च संस्थान इस पर काम भी कर रहे हैं.

प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के लिए एक प्रतिबद्ध विभाग के निर्माण की जरूरत

प्राथमिक शिक्षण संस्थानों के गुणवत्ता का सही से परीक्षण नहीं होता, जिससे बहुत नुकसान हो रहा है. इसकी गुणवत्ता का परीक्षण के लिए अलग से एक प्रतिबद्ध विभाग के निर्माण की जरूरत है, जिससे शिक्षकों के कार्यों, विद्यालयों के विकास और हर एक विद्यार्थी की शिक्षा और स्वास्थ्य पर एकदम शुरूआत से नजर रखी जा सके.

बच्चों के विकास के लिए जब हर उचित संसाधन मौजूद रहेंगे तो अवश्य ही बुनयादी शिक्षा में एक आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिल सकता है. इसके साथ ही यदि शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन सुनिश्चित करना है तो हर हाल में इस क्षेत्र को भ्रष्टाचार मुक्त रखने का प्रयास करना होगा और इसके लिए हरेक स्तर पर जवाबदेही सुनिश्चित करना होगा.

(लेखक एक राजनीतिक विश्लेषक हैं और पूर्व में आइआइटी गुवाहाटी के रिसर्च फेलो रहे हैं)

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