जे. पी. पांडेय
याद आया मैं भी किसान हूँ ।
ईट पत्थरों की बस्तियां
फर्राटा भरती गाड़ियां
सुबह यंत्रवत दफ्तर जाने
शाम निर्लेप सा वापस आने
तनख्वाह मिलने के बाद
कुछ किलों आटा, चावल, दाल
खरीद लाने के क्रम में
कब बन गया मैं शहरी
पता ही न चला
भूल गया बड़ी सुविधा से
आम के पेड़ों के झुरमुट के ऊपर
मद्धिम लाल दग्ध सूरज का
मंथर गति से ऊपर चढ़ना
आंगन में उतर आई
गौरैयों के समूह की चहचहाहट
पाख पर कौंवे की काँव-काँव
ऊंघ से उठे कुत्तों की झांव-झांव
कुएं की जगती पर मयूर का नर्तन
ज्यों निशा का अवसान कर उठ खड़ा सृजन
कर्णप्रिय रंभाती बछिया की गुनगुन
लगता जैसे प्यार भरे गीत का आलाप
अंतर्मन से उठे किसी मंत्र का जाप
सरसराती हवा, नीम के पेड़ों को जगाती
झरती पीली पत्तियों में नीम है खिलखिलाती
बजती बैलों की रुनझुन घंटियाँ
स्वगत, सजीव हो उठी पगडंडियाँ
धूल सने पैर
चले सजग खेतों की ओर
उठा हल, कुदाली, फावड़ा
खेत-खलिहानों में जा जुटा
किसी पुरहट से कलकल पानी की धार
कही बैलीं से ही बतियाता, हंसता किसान
पानी में धंसती, संभलती, धान रोपती
धरा के गर्भ में समृद्धि को बीजती
कर्म-योगनियो की खनखनाती चूड़ियाँ
हवा में फैलती लोकगीतों की लहरियाँ
किसी मॉल के लकदक दुकानों में
आकर्षक पैकिंग में रखे अन्न के दाने
समाये हुए है उन गीतों की सरगम
मेहनतकश हाथों की खुशबू
जग का पेट भरने का कृषकों का संकल्प
ढ़ेर सारी दया, करुणा, प्यार और दुलार
प्राणों से प्यारे अपने खेतों को छोड़
दर-दर भटकते
किसानों को देख
सहसा याद आया
मैं भी किसान हूँ ।।