लोक आस्था और स्वजनों के कल्याण का महापर्व छठ

अशोक प्रियदर्शी

छठ पूजा एक ऐसी पूजा है, जिसे द्रौपदी ने भी किया था और सुकन्या ने भी, लेकिन दोनों का मकसद एक ही था, स्वजनों का कल्याण. इस प्रकार स्वजनों के कल्याण के लिए किया जाने वाला यह सबसे बड़ा पर्व है, जिसमें षष्ठी तिथि को डूबते सूर्य व सप्तमी तिथि को उगते सूर्य कोअर्घ्य दिया जाता है. छठि मइया का वाहन ‘बिल्ली’ है. अत: छठ पर्व के दौरान बिल्ली का दर्शन बेहद शुभ माना गया है.

भारतीय वांग्मय में कार्तिक मास को सर्वाधिक पुण्यकारी बताया गया है. वैसे तो इस मास के प्रत्येक दिन स्नान-दान व देव दर्शन के लिए विशेष पुण्यकारी हैं, पर इसी माह में हरेक वर्ष मनाए जाने वाले सूर्य षष्ठी पर्व, जिसे बोलचाल की भाषा में ‘छठ’ कहा जाता है, का विशिष्ट मान है. हालांकि जानने की बात यह है कि प्रत्यक्ष देव सूर्य नारायण के श्रद्धा-सम्मान में छठ पर्व का आयोजन चैत्र माह में भी होता है, लेकिन जिस छठ की महत्ता चातुर्दिक है, वह है कार्तिक मास का छठ, जिसे नेम-निष्ठा व आस्था का महापर्व कहा जाता है. पर्वों के देश भारत में मनाए जाने वाले इस पर्व में शुद्धता, सुचिता व अंत:करण की स्वच्छता परमवश्यक है.

यह छठ की महत्ता का ही सुप्रभाव है कि न सिर्फ हिन्दू, बल्कि अन्य धर्म के लोग भी इस अवधि में आस्था के निर्वहन में पीछे नहीं रहते हैं. वैसे भी छठ का अर्घ्य देने संबंधी प्रधान सामग्रियों सूप, दौरा आदि का निर्माण समाज के तथाकथित रूप से निम्नवर्गीय माने जाने लोग, यथा- डोम, मुसहर आदि ही परंपरा से करते आ रहे हैं. कहने का अर्थ यह है कि यह पर्व वर्ग-विभेद, जाति-पाति, छूआ-छूत आदि से कोसों दूर है. बस असीम श्रद्धा व अटूट विश्वास ही इस पर्व का मूल है. यही कारण है कि इस घोर कलियुग में भी छठ करने वालों की संख्या दिनोंदिन बढ़ ही रही है.

प्रत्येक भारतीय पर्व की भांति इस पर्व से जुड़े कथा-कहानी से स्पष्ट होता है कि पारिवारिक उन्नति, संतान की कामना, वंशवृद्धि व बढ़ोतरी की मनौती का यह उत्तम पर्व है. अपनी मनोकामना पूर्ण होने के उपरांत लोग छठ-व्रत कर मनौती अवश्य उतारते हैं. यही वजह है कि इधर के समाज में शादी-ब्याह से लेकर, नौकरी,व्यापार, आदि हरेक मांगलिक कार्य में छठ पर्व व इसकी महिमा का स्पष्ट सरोकार दृष्टिगोचर होता है.

जब प्रियव्रत ने किया ‘पुत्रेष्ठि यज्ञ’

पौराणिक विवेचन से स्पष्ट होता है कि मनु के पुत्र प्रियव्रत को कोई संतान नहीं थी. उन्होंने महर्षि कश्यप द्वारा बताए गए ‘पुत्रेष्ठि यज्ञ’ कराने का निर्णय लिया. यज्ञ के उपरांत समय पाकर उनकी मालिनी नामक रानी ने एक पुत्र को जन्म तो दिया, पर वह मृत था. अतः राजदरबार में शोक व्याप्त हो गया. दूसरी ओर रानी तो मृत शिशु को अपने वक्षस्थल में ऐसे चिपकाई कि उसे छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही थी. अब राजा भी क्या करें और क्या नहीं यही सोच रहे थे कि तभी अचानक एक दिव्य घटना घटी और तभी आकाश मार्ग से कांंतियुक्त वरदायिनी मां षष्ठी का स्वत: आगमन हुआ. उन्होंने बच्चे को सिर्फ स्पर्श ही किया कि बालक हंसने लगा. यह कर्म षष्ठी तिथि को हुआ था. अत: तभी से इस बालक को जीवनदायिनी मां षष्ठी की पूजा अर्चना की जाने लगी.

द्रौपदी ने भी किया छठ पूजन

वैसे छठ पूजा का संदर्भ द्रौपदी से भी जोड़ा जाता है, जिन्होंने महाभारत काल में पांडवों के अनिष्ट से मुक्ति के लिए छठ का व्रत किया था. इसी प्रकार ऐसा माना जाता है कि सुकन्या ने च्यवन ऋषि के कष्ट निवारणार्थ छठ पर्व किया था. अपने देश में उपवास के पर्वें में छठ एक ऐसा पर्व है, जिसे स्त्री-पुरुष सभी समान रूप से करते हैं, पर यह भी सत्य है कि इसमें महिलाओं की हिस्सेदारी ज्यादा हुआ करती है.

नहाय-खाय से होती है शुरुआत

छठ पर्व की शुरुआत नहाय-खाय के रूप में होती है. इस दिन स्नानादि से निवृत्त होकर ही शुद्ध रूप से खाना बनाया जाता है, जिसमें चने की दाल, अरवा चावल व सेंधा नमक युक्त कद्दू की सब्जी बनाई जाती है. इसके अलावा अगस्त के फूल की पकौड़ी व धनिया के पत्ती की चटनी भी भोजन में अवश्य शामिल रहता है. रात्रि में भी कुछ इसी प्रकार का भोजन ग्रहण किया जाता है.

गुड़ व चावल की खीर का प्रसाद

दूसरे दिन व्रती लोग नदी या तालाब में आकर स्नान करके वहीं के लाए जल से घर में प्राय: मिट्टी की हंडी (हांड़ी) में खीर बनाते हैं, जिन्हें ‘प्रसाद’ कहा जाता है. मूल भोग लगने वाला प्रसाद सिर्फ दूध व चावल का और दूसरा दूध, गुड़ व चावल मिलाकर बनाया जाता है. इसी के
साथ कहीं-कहीं छोटी-छोटी रोटी व पिट्ठी भी बनाई जाती है तो कहीं नमकीन प्रसाद का भी रिवाज देखने को मिलता है. इस व्रत में मांग कर प्रसाद खाने का विधान है, जबकि अन्य पर्वों में ऐसी बात नहीं है.

अस्तगामी सूर्य को अर्घ्य

छठ का विशद् रूप तीसरे दिन से देखने को मिलता है, जब व्रती जिन्हें ‘पवनैतिन’ भी कहा जाता है, के द्वारा किसी तालाब, कुंड, झील, नदी व सागर तट पर जाकर अस्तगामी सूर्य का अर्घ्य दिया जाता है. ठीक इसी प्रकार दूसरे दिन सुबह-सुबह उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है। व्रती इसके बाद ही अन्न-जल गंहण करती हैं. सुबह-सुबह नदी, तालाब आदि पर ही प्रसाद ग्रहण करते समय प्रसाद लेने वालों की भीड़ बढ़ जाती है. ऐसे लोग, जिनके यहां किसी वजह से छठ नहीं होता, वे भी इस दिन नदी तट पर जाकर सूर्यदेव की आराधना अवश्य करते हैं और प्रसाद पाकर स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं. इस पर्व में जूठन प्रसाद खाने की भी अपनी महत्ता है, तो व्रती के वस्त्र-प्रक्षालन में क्या स्त्री और क्या पुरुष, सभी समान रूप से भाग लेते हैं.

कोशी भरने की प्रथा

इस पर्व के दौरान ‘कोशी’ भरने की भी परंपरा है, जिसे कुछ व्रती अवश्य करते हैं. कई अर्थों में छठ को बिहार का लोकपर्व कहा जाता है. वैसे भी इसका ज्यादा जोर बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, सीमावर्ती उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आदि राज्यों में बहुत ज्यादा है, पर अब तो इसकी धूम दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, सूरत, पुणे, कोलकाता, चेन्नई, राउरकेला आदि नगरों में भी सहज रूप में देखा जा सकता है.

ध्यातव्य है कि आदिकाल से सूर्य पूजन में निष्णात ‘मग’ ब्राह्मणों की मूलस्थली मगध बिहार में ही है, जहां आज भी दर्जनों सूर्य देवालय उपस्थित हैं. माना जाता है कि यहां सूर्य आराधना का त्वरित फलाफल प्राप्त होता है. सच पूछें तो दीपावली के बाद ही छठ के गीतों से यहां का पूरा माहौल धर्ममय हो जाता है. छठ के गीत मूलत: हिन्दी, भोजपुरी, मगही, मैथिली, संथाली, अवधी व ब्रज भाषा के हुआ करते हैं.

सूर्य लोक की प्राप्ति होती है

गरीब से गरीब व अमीर से अमीर सभी इस पर्व में समान रूप से भागीदार होते हैं. व्रती के जाने वाले मार्ग की साफ-सफाई में समस्त मुहल्ले वासी तन-मन से लग जाते हैं। इस प्रकार सूर्य आराधना का महापर्व छठ सूर्य सविता के पूजन का महाशुभ काल है. माना जाता है कि छठ पर्व करने वालों की कंचन काया सदैव बनी रहती है तथा वे मृत्यु के बाद सूर्य लोक की प्राप्ति करते हैं.

कौन हैं षष्ठी देवी ?

भारतीय देवियों में प्रजापति की पुत्री देवसेना ही षष्ठी देवी (छठ मईया) कही जाती हैं. प्रकृति के छठे अंश से
उत्पन्न होने के कारण इन्हें ‘षष्ठी माई’ भी कहा गया है. यह स्वंâद को अद्र्धांगिनी व बालकों को जीवन देने
वाली हैं. ब्रह्मवैवर्त पुराण में इन्हें ब्रह्मा की मानसी कन्या कहा गया है. कहते हैं कि शचीपति देवेंद्र (इंद्र देव)ने जब देवपुत्री देवसेना को दानव केशी से छुड़ाया, तब वह अपना परिचय देते हुए बोली कि मैं सिद्ध योगिनी हूं. कालांतर में इंद्र देवता ने ही जगत पिता की सहमति से देवताओं के सेनापति कार्तिकेय के साथ इनका विवाह संपन्न कराया. जानने की बात है कि अन्य भारतीय देवी-देवताओं की भांति मां षष्ठी भी वाहन युक्त हैं. इनका वाहन बिल्ली है. इसी कारण छठ पर्व के दौरान बिल्ली का दर्शन शुभ माना गया है.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और दश महाविद्या के अध्येता हैं.

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