बिहार चुनावी वर्ष : 35 साल से अपने वजूद के लिए तरस रही कांग्रेस , इस बार भी कोई उम्मीद नहीं

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दिल्ली / पटना

बफ्फ कानून लागु होने के साथ ही कांग्रेस अब मुस्लिम वोट जो बीजेपी के खिलाप गोलबंद करने की मुहीम में जुट गयी है। 64 साल के बाद कांग्रेस अपने राष्ट्रीय अधिवेशन गुजरात में करके ये सन्देश दिया है कि पार्टी अब बीजेपी को सीधे गढ़ में चुनौती देगी। गुजरात में कांग्रेस करीब तीन दशक से सत्ता से बहार है।अहमदाबाद के साबरमती के तट पर कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन में पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं को संदेश दिया है कि वे अपने मिशन में जुट जाएं। इधर दिल्ली में अपना वजूद ख़तम होने का बाद अब कांग्रेस बिहार की ओर देख रही है जहाँ इसी साल अक्टूबर में विधान सभा चुनाव होना हैं। कांग्रेस बिहार में पिछले 30 साल से अपने वजूद के लिए तरस रही है। आजादी से बाद से लेकर 1990 के तक कांग्रेस बिहार की सत्ता में रही थी।

इसके बाद पार्टी का पतन होता चला गया. इसी के साथ ही मंडल की सियासत ने कांग्रेस की जमीन को बंजर बना दिया. इसके बाद से वो दोबारा से सत्ता में वापसी नहीं कर पायी। 1990 का साल में प्री मंडल-कमंडल और पोस्ट मंडल-कमंडल राजनीति का दौर शुरू हुआ तो कांग्रेस की राजनीती लगभग ख़तम होती गयी। वो ऐसा दौर था जब पिछड़ी जातियों के नेता लालू-नीतीश का उभार हुआ और बीजेपी की एंट्री ने अपर कास्ट को अपनी ओर खींच लिया. ऐसे में कांग्रेस की जमीं खिसक गयी।

बिहार में 1980 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने फिर जोरदार वापसी की और जगन्नाथ मिश्र को दोबारा कमान मिली. दिलचस्प ये है कि 1980 से 1990 तक 10 साल में ही कांग्रेस ने पांच बार सीएम बदला. जगन्नाथ मिश्रा के अलावा चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिन्हा को भी इस कुर्सी पर बैठने का अवसर मिला. कांग्रेस के अलग-अलग गुट आपस में ही एक दूसरे को निपटाने में जुट गए. नतीजा रहा कि हार मानकर 1990 के चुनाव से पहले दिसंबर 1989 में पार्टी ने तीसरी बार जगन्नाथ मिश्र को ही कमान दे दी. मार्च 1990 के विधानसभा चुनाव के बाद से अब तक पिछले 35 साल में कांग्रेस लगभग डूब गया। बिहार में भी कांग्रेस उत्तर प्रदेश की तरह ही अगड़ी जातियों की पैरोकार थी. वो कमजोर पड़ने लगी थी और अगड़ी जातियों को विकल्प के तौर पर भाजपा मिल चुकी थी. बीजेपी की स्थापना अप्रैल 1980 में हुई थी और वो इसी साल मई में हुए विधानसभा चुनाव में उतर गई थी. साल 1985 के चुनाव में लोगों ने बीजेपी को उभरते देखा था. उसके पास 10.53 फीसदी वोट के साथ 16 सीटें उसके पास थीं.

जानिए 1990 का मंडल का दौर और कांग्रेस की क्या हुई हालत

आपको बतादें कि 1990 में भारतीय राजनीति में दो बड़े परिवर्तन हुए। यही से कांग्रेस हाशिए पर चलती गयी. केंद्र में जनता दल की सरकार थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह पहली गैर कांग्रेसी सरकार के मुखिया रहे मोरारजी देसाई द्वारा 20 दिसंबर 1978 को गठित पिछड़ा वर्ग आयोग (मंडल आयोग) की रिपोर्ट 7 अगस्त 1990 को लागू करने की घोषणा कर दी थी। मंडल आयोग ने दिसंबर 1980 में ही अन्य पिछड़े वर्गों को नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश कर दी थी. लेकिन उसके बाद की इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकारों ने इस सिफारिश को लटकाए रखा. पिछड़ी जातियों, जो बिहार में सबसे अधिक संख्या में हैं, उनमें यह संदेश चला गया था. नतीजा यह हुआ कि पिछड़ी जाति के लोग अपने बीच से नेता तलाशने में जुटे।

लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा ने कांग्रेस के अपर कास्ट वाले वोट बैंक को बीजेपी में शिफ्ट करवाया

मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के 48 दिन बाद 25 सितंबर 1990 को भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर के लिए सोमनाथ (गुजरात) से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक रथयात्रा की शुरुआत की. तब बिहार में जनता दल के लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे. रथयात्रा के अगुआ आडवाणी को 23 अक्टूबर 1990 को समस्तीपुर में सत्ता के इशारे पर तत्कालीन डीएम आरके सिंह (जो मोदी सरकार 2-0 में मंत्री रहे ) ने गिरफ्तार किया. नतीजा रहा कि पहली बार बीजेपी ने कांग्रेस के अपर कास्ट वाले वोटबैंक का दिल जीत लिया। नतीजा लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा ने कांग्रेस के अपर कास्ट वाले वोट बैंक को बीजेपी में शिफ्ट करवाया। मंडल और कमंडल की इस राजनीति में कांग्रेस हाशिए पर चली गई. 1990 से 1995 का दौर बिहार में सामाजिक परिवर्तन का दौर माना जाता है. क्योंकि पहली बार सत्ता में पिछड़ी जातियों की अच्छी भागदारी थी. इस दौरान कांग्रेस ने अपनी खोई हुई सियासी ताकत को वापस पाने का कोई प्रयास नहीं किया. लालू प्रसाद यादव मजबूत होते गए और कांग्रेस कमजोर हो गयी। 1999 में नारायणपुर नरसंहार के बाद राबड़ी देवी सरकार को बचाने में कांग्रेस आगे आयी। तब से कांग्रेस पूरी तरह लालू यादव की बैशाखी बानी हुई है।

बिहार कांग्रेस में नेताओं की कमी

वर्तमान में बिहार कांग्रेस में कोई नेता नहीं जिसकी जमीं पर पकड़ है। अभी नए बनाये गए अध्यक्ष राजेश कुमार का जनाधार हवा हवाई है। लेकिन कांग्रेस के पिछड़े की राजनीति के कारण बिहार की वागडोर थमा दिया। इसके पहले भूमिहार जाती से अखिलेश प्रसाद सिंह अध्यक्ष थे। बिहार विधान सभा चुनाव से पहले बिहार में अध्यक्ष के बदलने से पार्टी में हलचल बढ़ी है। राहुल गाँधी बेगुसराय में यात्रा पर गए भी मगर कोई ज्यादा रिस्पांस नहीं मिला। बिहार कांग्रेस में असमजस के हालत है। चुनाव में कितनी सीटे लालू यादव देंगे ये अभी तय नहीं। यानि कांग्रेस अभी भी लालू यादव और तेजस्वी यादव पर निर्भर है।

बिहार में आरजेडी और जेडीयू का दौर

जनता दल से अलग होकर 5 जुलाई 1997 को लालू यादव ने राष्ट्रीय जनता दल का गठन कर लिया. इसके बाद फरवरी 2005 तक उन्हीं का परिवार सत्ता पर काबिज रहा. हालांकि इसी बीच 30 अक्टूबर 2003 को जेडीयू की स्थापना हो चुकी थी. लालू के दौर में ही वो जेडीयू नेता नीतीश कुमार 3 से 10 मार्च 2000 तक सात दिन के लिए मुख्यमंत्री बने. लेकिन पर्याप्त बहुमत न होने की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था.साल 2005 के बाद से नीतीश कुमार का राज है.
कभी दलित कांग्रेस का कोर वोटबैंक हुआ करता था. उसमें रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने सेंधमारी कर दी. रामविलास के निधन के बाद अब इस वर्ग के बड़े नेता के तौर पर चिराग पासवान उभर रहे हैं. जबकि ज्यादातर ब्राह्मण बीजेपी के साथ हैं. ओबीसी का बड़ा धड़ा पहले से ही लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के साथ है. बफ्फ क़ानून बनने के बाद अब बिहार में मुस्लिमोंका झुकाव अब फिर से लालू यादव की और दिख रहा है . नीतीश कुमार नाराज में कई मुस्लिम नेता ने पार्टी छोड़ दिया है।

Jetline

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