शिवपूजन सिंह
कोरोना वायरस की जंग के बीच बिहार की सियासत को लेकर भी जंग छिड़नी है. सभी पार्टिया अपने-अपने दावे और ताल ठोकने में जुट गई है. हालांकि इस बार न दीवारों पर ज्यादा होर्डिंग दिखती है, ना वादे और जुमले का फंसाना नजर आता है. इसके अलावा न ही सड़क पर चिल्ला-चिल्ला कर सियासी नारे बुलंद करने वाले कर्मठ कार्यकर्ताओं की भीड़ नजर आती है.
हम सब जानते है कि बिहार का चुनाव सिर्फ बिहारवासियों के लिए ही नहीं, बल्कि देश के लिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है. राजनीतिक चेतना और सियासत की समझ यहां के लोगों में गजब का है, शायद ही कोई इससे इनकार करें. लेकिन इस बार की वोटिंग बिल्कुल जुदा होने वाली है. शायद ही बिहार में ऐसा चुनाव कभी देखने को लोगों को मिला होगा. वजह कुछ नहीं, सिर्फ और सिर्फ कोरोना का जानलेवा वायरस है. बूथ पर वोट के पर्ची के साथ-साथ मॉस्क, सैनिटाइजर और दो गज की दूरी का ख्याल भी रखना है, क्योंकि कोरोना से जंग तब भी जारी रहेगी.
इस बार चुनावी चक्कलस, मोड़ पर चर्चा, चाय की दुकान पर चुस्कियों के बीच सियासी बातें बहुत-कम देखने सुनने को मिलेगी. जहां तक बात हुकूमत में किसके चांस की है, तो गुणा-भाग, जोड़-तोड़ कर लें, मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के सामने मैदान खाली-खाली नजर आता है. लालू यादव के सलाखों के पीछे जाने के बाद मुख्य विपक्षी पार्टी आरजेडी में खाली पान है. लालू के लाल तेजस्वी और तेजप्रताप के कंधों पर खोये हुए साम्राज्य को हासिल करने की चुनौती है.
महागठबंधन का हिस्सा बनकर चुनाव लड़ रही आरजेडी के हिस्से में 144 सीटें और कांग्रेस को 70 सीटें मिली है. भाकपा (माले) के पास में 19 सीटें आई हैं, जबकि माकपा को 4 और भाकपा को 6 सीटें दी गई हैं. वहीं टिकट की खटपट के चलते रालोसपा और हम महागठबंधन से निकलकर अपनी अलग राह पकड़ चुकी है.
हालांकि, आरजेडी में वंशवाद की झलक, तारतम्य और तालमेल की कमी भी साफ दिखती है. वहीं टिकट बंटवारे में वरिष्ठ नेताओं के बेटे इस बार अपनी सियासी पारी का आगाज करेंगे, जिसमे आरजेडी प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह के बेटे सुधाकर सिंह, शिवानंद तिवारी के बेटे राहुल तिवारी हैं.
चुनाव से ठीक पहले पूर्णिया में आरजेडी के पूर्व नेता शक्ति मलिक की हत्या को लेकर तेजस्वी और तेजप्रताप घेरे में हैं. इन दोनों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है. जाहिर है कि राजनीति का पारा इसे लेकर और गर्म होगा और शोर-शराबा भी सुनने को मिलेगा.
इधर, एनडीए के कुनबे पर नजर डाले तो यहां भी घमसान मचा हुआ है. एलजेपी ने अलग चुनाव लड़ने का फैसला लेकर एक तरह से एनडीए में फूट की चिंगारी भड़का दी है. दरार की वजह औेर कुछ नहीं, बल्कि टिकट बंटवारा और जेडीयू से तकरार है. एनडीए में मनचाही संख्या में सीट न मिलने के चलते चिराग पासवान ने 143 सीटों पर प्रत्याशी उतारने का फैसला किया है. हालांकि, चिराग कहते हैं कि बीजेपी के साथ उनका गठबंधन कायम रहेगा, तकरार सिर्फ नीतीश कुमार से है.
लाजमी है कि जेडीयू के साथ एलजेपी दो-दो हाथ करेगी. यहां दोनों पार्टियों के उलझने पर जाहिर है कि वोटों का बंटवारा होगा, जिसके चलते महागठबंधन को फायदा मिलेगा.
अगर एनडीए के अंदरुनी हिसाब-किताब की चर्चा करें तो एलजेपी की ताकत दलितों के एक तबके का अच्छा खासा वोट बैंक है, जो जेडीयू के खिलाफ वोट कर सकता है. वहीं, बीजेपी को तो नकुसान होता नहीं दिख रहा, क्योंकि उसके जेडीयू और एलजेपी दोनों से अच्छे संबंध है. अगर बीजेपी बिहार चुनाव में मजबूत बनकर उभरती है, तो फिर नीतीश कुमार का वजन भी कम होगा और अपनी बात मनवाना भी आसान नहीं होगा.
इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है. एलजेपी के साथ जेडीयू ने कभी कोई विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा है. 2015 के चुनाव में एलजेपी एनडीए के साथ ही चुनाव लड़ी थी और 42 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, जिसमें महज 2 विधायक ही जीत सके थे. कुल मिलाकर देखा जाए तो एनडीए की यह खटपट चुनव से पहले और बाद दोनों के लिए ठीक नहीं है.
चुनावी समर एनडीए और महगबंधन में किसका पलड़ा भारी है. इस पर आकलन किया जाए तो एनडीए में दरार तो पड़ी है, लेकिन टीम मंझे हुए तजुर्बे वाले खिलाड़ियों से भरी पड़ी है, जबकि महगठबंधन में वो बात नहीं दिखती.