बिहार में चुनाव के पहले हो गया खेला, लालू-पशुपति पारस मिले, NDA छोड़ महागठबंधन में आएंगे पारस ?

Big game played Before the elections in Bihar, Lalu-Pashupati Paras met, will Paras leave NDA and join Grand Alliance?

डॉ निशा कुमारी

बिहार में विधान सभा चुनाव के पहले खेला हो गया है. इस बार मकर संक्रांति के अवसर पर आयोजित होने वाले दही-चूड़ा भोज में कई सियासी समीकरण सेट हुए हैं. आज पटना में पूर्व केंद्रीय मंत्री पशुपति पारस के यहां आयोजित दही चूड़ा भोज में लालू प्रसाद यादव अपने बड़े बेटे तेज प्रताप यादव के साथ पहुंचे थे.

जानकारी के अनुसार लालू यादव दही-चूड़ा भोज में करीब 10 मिनट तक रुके और पशुपति पारस से मुलाकात कर कई सियासी मुद्दों पर भी चर्चा की. इस मुलाकात के बाद ये संकेत मिल रहे हैं कि NDA में हाशिये पर चल रहे पशुपति कुमार पारस की पार्टी राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी अब महागठबंधन में शामिल हो सकती है. चिराग पासवान को बीजेपी का समर्थन और पारस को दरकिनार करने से पारस के समर्थकों में बेहद नाराजगी है. पारस की पार्टी लोजपा अब अक्टूबर-नवंबर में होने वाले बिहार विधान सभा चुनाव में महागठबंधन के सहयोगी दलों के रुप में चुनाव मैदान में उतर सकती है. अगर ऐसा हुआ तो बिहार में NDA को नुकसान हो सकता है, स्वर्गीय रामबिलास पासवान के भाई पशुपति पारस और उनके बेटे चिराग के बीच दलित वोटर्स का बंटबारा होगा.

महागठबंधन से जुड़कर आगामी विधानसभा चुनाव भी लड़ सकते हैं पशुपति कुमार पारस

आपको बता दें कि इस भोज में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लेकर लालू प्रसाद यादव तक को निमंत्रण भेजा गया था. हालांकि भोज में सीएम नीतीश कुमार तो नहीं पहुंचे, लेकिन लालू यादव ने पशुपति कुमार पारस के यहां पहुंचकर कई बड़े संकेत जरूर दे दिए. सूत्रों ने बताया कि इस दौरान लालू यादव ने पशुपति पारस को महागठबंधन के साथ आने का ग्रीन सिग्नल भी दे दिया है. बताया जा रहा है कि एनडीए (NDA) से नाराज चल पशुपति कुमार पारस लालू यादव से ग्रीन सिग्नल मिलने के साथ ही महागठबंधन से जुड़कर आगामी विधानसभा चुनाव भी लड़ सकते हैं. अब ऐसे में बिहार के सियासी गलियारे में चर्चाओं का बाजार तेज हो गया है. आपको बता दें पिछले नवंबर महीने में पशुपति कुमार पारस की पार्टी राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (RLJP) ने 2025 का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान कर दिया है. पार्टी का कहना है कि NDA में उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है.

पशुपति कुमार पारस ने कहा कि लालू जी से अलग-अलग मुद्दों पर चर्चा हुई. खरमास खत्म हो गया है. ऐसे में अब सब अच्छा होगा. वहीं लालू यादव ने कहा कि सब ठीक है. पशुपति कुमार पारस पिछले दिनों कई बार कह चुके हैं कि उनको एनडीए के अंदर पूछा नहीं जा रहा है. ऐसे में लालू यादव से ग्रीन सिग्नल मिलने के साथ ही पशुपति कुमार पारस जल्द ही कोई बड़ा फैसला ले सकते हैं. इससे पहले ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि अगर नीतीश कुमार पशुपति पारस के यहां जाते हैं तो उनकी लालू यादव से मुलाकात हो सकती है.

एनडीए से नाराज चल रहे हैं पारस

आपको बता दें कि कुछ दिनों पहले एनडीए की बैठक में पारस को निमंत्रित नहीं किया गया और बिहार सरकार ने उन्हें लोजपा कार्यालय के लिए आवंटित सरकारी भवन से बेदखल कर दिया. पारस के करीबी लोग बता रहे हैं कि वह एनडीए से अलग नए समीकरण पर विचार कर रहे हैं. पारस को 2021 में नरेंद्र मोदी की कैबिनेट में मंत्री पद मिला था, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले उनकी स्थिति खराब हो गई. उन्होंने केंद्रीय कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया. राजनितिक टीकाकार कहते हैं कि पारस को केंद्र में नीतीश कुमार के कहने पर मंत्री बनाया गया था, वजह चिराग पासवान ही थे. 2000 के बिहार विधान सभा चुनाव में बीजेपी ने चिराग पासवान की पार्टी से कई अपने प्रत्यासी उतारा था, जिसके कारण जदयू को भारी नुकसान हुआ था. चिराग द्वारा नीतीश के खिलाफ हमला बोलने से नाराज नीतीश कुमार ने पारस को आगे बढ़ाया था. तब चिराग एनडीए में हाशिये पर चले गए थे, लेकिन लोकसभा चुनाव 2024 में 5 सांसद मिलने से एक बार फिर से चिराग मजबूत हो गए हैं. बीजेपी पारस की जगह अब चिराग को ज्यादा महत्व देते हैं, वजह वोटरों पर पकड़, बढ़ती उम्र ने पारस की राजनितिक करिअर को पीछे कर रखा है.

चाचा पशुपति पारस के एक समय में चिराग से ज्यादा दबदबा NDA में था और केंद्रीय मंत्री भी थे, लेकिन लोकसभा चुनाव में सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया. चिराग की पार्टी लोजपा रामबिलास के पांच सांसद ने जीत हासिल किया. जबकि पारस की पार्टी को कोई टिकट ही नहीं मिला, जिसके कारण पार्टी अभी कोमा में दिखती है. चाचा पशुपति पारस अभी नए प्लेटफार्म की तलाश में हैं. आपको बता दें कि चिराग पासवान की पार्टी लोजपा (रा) ने चुनाव में सभी पांच सीटों पर जीत हासिल की थी. चिराग पासवान को रिवार्ड मिला अब वे केंद्रीय मंत्री हैं.

जानिए बिहार में जाति की राजनीति क्या है खेल!

बिहार में जाति के वोटों पर राजनीति होती है। यही फैक्टर सरकार बनाने में भी काम आता है। लालू -राबड़ी के शासन काल में माय समीकरण (यादव -मुस्लिम यादवों) की भूमिका रही है। इसके अलावा दलित -पिछड़ों के वोट भी लालू को मिला था। लालू – राबड़ी के बाद नीतीश कुमार कोइरी-कुर्मी , कुशवाहा , महादलित , अति पिछड़ों , मुस्लिम और अग्रि जाति के वोट से पिछले 20 वर्ष से सत्ता में बने हुए हैं. यादवों के वोट में भी सेंधमारी कर रखी है। 16 % वोट RJD की झोली में जाता ही है। जबकि मुसलमान RJD और कांग्रेस को छोड़कर दूसरे को बहुत कम वोट देते हैं। बिहार में मुसलमान 17% हैं।
चिराग पासवान का 6% वोट है. ये वोट अभी कोमा में हैं कारण कि चाचा -भतीजे के बीच झगड़ा। जो अब अपने अस्तित्व की लड़ाई पर आ गयी है। चिराग और पारस एक दूसरे को ख़तम करने कि रणनीति पर काम कर रहे हैं। बिहार में लोकसभा चुनाव 2024 में एनडीए के प्रदर्शन में गिरावट देखी गई थी । इस चुनाव में भाजपा और जेडीयू को 12-12 सीटें मिलीं हैं। जीते हुए सांसद राजपूत, भूमिहार, मुस्लिम और यादव जाति से ज्यादा है। एनडीए को बिहार में 9 सीटों का नुकसान हुआ। एनडीए ने 2019 के चुनाव में बिहार की 40 में से 39 सीटें जीती थीं, लेकिन अब यह संख्या घटकर 30 हो गई । इनमें बीजेपी और जेडीयू ने 12-12 सीटें जीतीं। वहीं, उनकी सहयोगी एलजेपी (रामविलास) को पांच और हम को एक सीट मिली। वहीं, ‘इंडिया’ गठबंधन को नौ सीटें मिलीं, जिसमें आरजेडी को चार, सीपीआई-एमएल को दो और कांग्रेस को तीन सीटें मिलीं। इसके अलावा, निर्दलीय उम्मीदवार पप्पू यादव ने भी जीत दर्ज की। बिहार में इस बार के लोकसभा चुनाव में चुनाव जीतने वाले सांसदों में सवर्ण समुदाय से 12 सांसद हैं। जबकि दलित समाज से छह सांसद बने हैं। ये सभी सुरक्षित सीट से चुने गए हैं। दो अल्पसंख्यक समुदाय और बाकी 20 सांसद पिछड़ा और अतिपिछड़ा समुदाय से चुने गए हैं। सबसे अधिक सात यादव जाति से सांसद बने हैं। इसके बाद छह सांसद राजपूत जाति के हैं।

समझिये अगर ओबीसी और अति पिछड़ा वर्ग के वोटर गोलबंद हुए तो किसका होगा नुकसान

जातीय जनगणना की रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी 27.13 फीसदी है, जबकि अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) 36.01 फीसदी है। अब बिहार की राजनीति 63 प्रतिशत ओबीसी पॉलिटिक्स के इर्द-गिर्द ही घूमती नजर आएगी। आपको बता दें कि 1989 के बाद से कांग्रेस से ओबीसी वोट बैंक छिटकने लगा और पार्टी का प्रदर्शन लगातार कमजोर होने लगा। तब ओबीसी समाजवादी दलों जनता दल, आरजेडी, समाजवादी पार्टी, जेडी यू के वोटर बन गए। इसके बदौलत ही आरजेडी ने 15 साल और नीतीश कुमार ने 15 साल बिहार में शासन किया।

बिहार में 33 जातियां ओबीसी यानी पिछड़ा वर्ग और 113 जातियां अति पिछड़ा वर्ग में आती हैं. मोटे तौर पर ओबीसी जाति के यादव, कुर्मी, धानुक, नाई और मुसलमान महागठबंधन वोट फिक्स वोटर माने जाते हैं. इसके अलावा इन दलों को दो-तीन फीसदी सवर्ण, अति पिछड़ा वर्ग और दलितों का वोट भी मिलता है. इस लिहाज से महागठबंधन के पक्ष में 45 से 50 फीसदी जातीय वोटर नजर आ रहे हैं. इससे उलट एनडीए गठबंधन को सवर्ण, पासवान, बनिया, कुशवाहा का वोट बैंक है. इस समीकरण के हिसाब से बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के पास 32 से 35 फीसदी वोटर हैं. अन्य पिछड़ा वर्ग के करीब 20 पर्सेंट वोटर तेली, लुहार, कुम्हार, बढ़ई, कहार, केवट जातियों में बंटे हैं. चुनाव में यह वोट बैंक मजबूत दावेदारों की ओर शिफ्ट होता रहा है.

2025 के बिहार विधान सभा चुनाव से पहले ओबीसी और अति पिछड़ा वर्ग के वोटर गोलबंद होते हैं तो बीजेपी का नुकसान हो सकता है.

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