उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 : चुनावी होड़ में कौन आगे और कौन पीछे ?

दिवेश रंजन और बृजेश कुमार राय

अभी हाल के कुछ राजनीतिक घटनाक्रम उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव पर अच्छा प्रभाव डालते हैं. पहला केंद्र सरकार की कैबिनेट में फेरबदल अगले साल के उत्तर प्रदेश के चुनाव को ध्यान में रखते हुए जातीय समीकरणों के आधार पर किया गया है और उसमें यह भी कोशिश की गई है कि उत्तर प्रदेश से अधिक से अधिक नेताओं को मंत्रिमंडल में जगह दी जाए. दूसरा, उत्तर प्रदेश के कुल 75 जिलों में से 67 जिलों में जिला पंचायत के अध्यक्ष पद पर और ब्लॉक प्रमुखों के चुनाव में कुल 825 सीटों में 625 सीटों पर भाजपा की जीत हुई है. हालांकि इस दौरान बहुत जगहों से यह भी खबर आई कि आलोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल किया गया. भाजपा की मंशा इस पंचायत चुनाव की बड़ी जीत का प्रचार करके विधानसभा चुनाव में फायदा लेना है. खैर जैसे भी हो वास्तविकता यह है कि इन पदों पर भारतीय जनता पार्टी समर्थित लोग बैठे हैं. ये दो कदम भाजपा का मास्टर स्ट्रोक है जिससे उत्तर प्रदेश के अगले साल के चुनाव की तैयारियों और रणनीतियों में भाजपा की अच्छी बढ़त कहा जा सकता है.

तीसरी खबर है कि चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की राहुल गांधी से मुलाक़ात हुई. सूत्रों की माने तो इसकी प्रबल संभावना है कि प्रशांत किशोर कांग्रेस से जुड़ने वाले हैं और शायद उन्हें पार्टी में जनरल सेक्रेटरी जैसा महत्वपूर्ण पद भी दिया जाए. अगर प्रशांत किशोर कांग्रेस से जुडते हैं तो यह कांग्रेस के लिये बहुत सही फैसला होगा. इसमें थोड़ी भी शंका नहीं है कि यदि प्रशांत किशोर की बातों पर सही से अमल किया गया तो कांग्रेस पार्टी की स्थिति में सुधार आ सकता है, जो बहुत आवश्यक भी है. भारतीय कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय स्तर की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है और एक स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष का मजबूत होना उतना ही जरूरी है जितना एक मजबूत सत्ताधारी पार्टी का.

प्रशांत किशोर के जुड़ने का लक्ष्य कांग्रेस को 2022 के विधानसभा से कहीं अधिक 2024 के लोकसभा चुनाव में जीताना होगा. वर्तमान में कांग्रेस अधिकतर राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों के सहायक पार्टी की भूमिका में आ गई है. ऐसे में जरूरी है कि कांग्रेस ज्यादा सीट की लालसा ना रखे. 40 सीट पर्याप्त है और अगर थोड़ा उससे भी कम मिल रहा हो तो गुंजाइश कर लेना चाहिए. समाजवादी पार्टी (सपा) को लगभग 300 सीट पर खुद लड़ना चाहिए और यदि 35-40 सीट कांग्रेस को दिया जाए और 10-15 सीट राष्ट्रीय लोक दल को दिया जाए तो एक मजबूत गठबंधन बन सकता है. सपा को आम आदमी पार्टी और आजाद समाज पार्टी को भी गठबंधन में लाना चाहिए और दस-पंद्रह सीट के आस पास इन्हें भी देना चाहिए, यह निर्णय जीत के आधार को और भी बढ़ा सकता है. अलग होकर लड़ने से इन पार्टियों को शायद ही किसी सीट पर जीत मिले, लेकिन ये वोट काटने का काम जरूर करेंगे, जिसमें सपा का नुकसान है. बाकी सीटों पर और भी छोटे –छोटे क्षेत्रीय दलों को गठबंधन में जोड़ा जाना फायदेमंद रहेगा.

सपा को यादव- मुस्लिम समीकरण से हट कर सोचना चाहिए, क्योंकि बहुत सारे सीटों पर मुस्लिम वोट बंट जाएंगे. भाजपा के लंबे समय से चले आ रहे रणनीति को समझते हुए उसके वोट बैंक में सेंध मारना चाहिए. पिछले 7 सालों से भाजपा ब्राह्मण-बनिया की पार्टी के टैग से छुटकारा पाने के प्रयास में रहा है और इसके लिए वो अनुसूचित जातियों, पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों का वोट जुटाने में कामयाब रही है. उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा के चुनाव में भाजपा ने 119 सीटों पर अति पिछड़ी जातियाँ जैसे राजभर, कुशवाहा और मौर्य को टिकट दिया और लगभग 69 सीट पर गैर जाट व दलित को टिकट दिए. इन रणनीतियों को ध्यान में रखते हुए सपा के नेतृत्व में जो भी गठबंधन बने उसे अनुसूचित जतियों, पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों को लुभाने पर जरूर ध्यान देना चाहिए. इसके अलावा क्षेत्र के जातीय और राजनीतिक समीकरणों को भी ध्यान में रखते हुए फैसले लेना जरूरी है.

अगला चुनाव बहुत कड़ी प्रतिस्पर्धा से होगा जिसमें जीत कम सीटों के फासलों से होगा. हालांकि भाजपा की जीत की संभावना है, लेकिन ये बिना अथक प्रयास किये संभव भी नही है. वर्तमान में सोशल मीडिया प्रचार का एक महत्वपूर्ण माध्यम है. सोशल मेडिया के माध्यम से सही और झूठ हर तरह के प्रचार किये जाते हैं. ऐसे में जितना सामर्थ्य भाजपा के पास है उतना उसके प्रतिद्वंदियों के पास नहीं है. सपा और विरोधी दलों को भी सोशल मीडिया पर असरदार तरीके से अपनी उपस्थिति बनाने की जरूरत है, इन्हें भी भाजपा की तरह एक बड़ी आईटी टीम बनाने की जरूरत है. विपक्षी पार्टियां भाजपा सरकार की असफलताओं को सोशल मीडिया के जरिये जनता के बीच उजागर करने में नाकामयाब साबित हुई है, जबकि भाजपा छोटी-छोटी बातों को भी बढ़ा-चढ़ा कर बताने में सफल साबित हुई है.

भाजपा में लंबे समय से व्यक्ति विशेष के नाम पर चुनाव लड़ा जा रहा है. ऐसे में उम्मीदवारों का व्यक्तित्व मायने नहीं रखता. इस बात को जनता भली-भांति समझ रही है. ऐसे में देखने की बात यह होगी कि क्या सपा और उसके सहयोगी दल समाज के ऐसे लोगों को, जो अपने काम और चरित्र के कारण समाज में जाने जाते हैं, उनको उम्मीदवार बनाएगी ? अगर वे ऐसा कर पाते हैं तो अपने आप को भाजपा से अलग दिखा पायेंगे और इससे उनको लाभ भी होगा.

स्वास्थ्य, किसान के मामले, रोजगार और पेट्रोल-डीजल के मूल्यों में बढ़ोतरी आने वाले चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा रहेगा. जनता में भाजपा सरकार की विफलता को लेकर आक्रोश है. देखने की बात है कि सपा और सहयोगी दल इन मुद्दों को कैसे भूना पाती है ? यह देखा गया है कि भारत की जनता बहुत जल्द चीजों को भूल जाती है. हो सकता है कि आने वाले कुछ महीनों में भाजपा जन लुभावने योजनाओं को लेकर आती है तो जनता महामारी के उचित प्रबंधन में सरकार की निष्फलता को भूलकर दोबारा उसे वोट दे. अब देखना यह है कि क्या भाजपा जनता का विश्वास जीतने में कामयाब रहेगी या फिर सपा और उसके सहयोगी दल भाजपा सरकार के विफलताओं को उजागर करते हुए जनता का भरोसा जीत पाएंगे ?

(लेखक दिवेश रंजन राजनीतिक विश्लेषक हैं और बृजेश कुमार राय आईआईटी गुवाहाटी के पूर्व प्राध्यापक हैं)

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