डॉ. निशा सिंह
रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा एक बार फिर घर वापसी यानी जदयू में जाने वाले हैं. नीतीश कुमार अपने पुराने आधार वोटर लव-कुश समीकरण को बिखरने से परेशान हैं सो उन्हें भी उपेंद्र कुशवाहा का साथ आने वाले वक्त में फायदा दे सकता है. कुशवाहा भी नीतीश कुमार के साथ मिल कर अपने जनाधार को बढ़ा सकते हैं. दरअसल बिहार के सियासत में जेडीयू के पहले समता पार्टी बना था और उस वक्त समता पार्टी लव-कुश यानी कुर्मी और कोईरी की पार्टी मानी जाती थी. उस वक्त नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा भी साथ थे और दोनों मिलकर पार्टी को मजबूत बनाने में लगे थे, लेकिन बाद में कुशवाहा जेडीयू से अलग हो गए और नीतीश कुमार और कुशवाहा के रास्ते अलग हो गए.
जदयू के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष बशिष्ठ नारायण सिंह ने भी उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी का जदयू में विलय पर कहा कि इस दिशा में सकारात्मक बात चल रही है. पिछले दिनों कुशवाहा ने नीतीश कुमार से मुलाकात की थी. तभी से ये चर्चा है कि किसी भी दिन कुशवाहा जदयू में शामिल होने का एलान कर देंगे. राजनीतिक गलियारे में ये बातें तैरने लगी है कि उपेंद्र कुशवाहा को साथ लेकर नितीश कुमार बीजेपी को ये सन्देश देना चाहते हैं कि उनकी राजनीति को कमजोर नहीं किया सकता है. ये अलग बात है कि विधान सभा चुनाव में अपनों के पहचान पर नीतीश कुमार कह चुके हैं कि उन्हें पता नहीं चला कि कौन दोस्त था और कौन दुश्मन? जदयू मानती है कि लोजपा भाजपा के इशारे पर जदयू के वोटरों में भ्रम फ़ैलाने का काम किया था जिसके कारण जदयू को मात्र 43 सीटों पर जीत मिली. उपेंद्र कुशवाहा के वापसी से नीतीश कुमार कितने मजबूत होंगे, ये तो अभी कहना मुश्किल है, लेकिन ये साफ है कि पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने में नितीश कुमार इन दिनों रात-दिन एक किये हुए हैं.
आरसीपी सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने के बाद अब कुशवाहा को मिलाकर नीतीश कुमार अब अपने कुनबे को बढ़ाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं.
लंबा है रूठने मनाने का इतिहास
उपेंद्र कुशवाहा का नीतीश कुमार से रूठने और फिर उनसे जुड़ने का यह पहला मौका नहीं है. उपेंद्र ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही शुरू की थी. नीतीश कुमार ने उन्हें आगे भी बढ़ाया भी है. कई बार मतभेदों के कारण उपेंद्र ने पार्टी छोड़ी और फिर वापस भी आए हैं. पिछले दिनों कुशवाहा ने कहा है कि वे नीतीश कुमार से कभी अलग नहीं हुए. हालांकि इससे पहले भी दो बार वे अलग हुए. जब-जब जदयू से अलग हुए उन्हें एक बार को छोड़ कोई बड़ा प्लेटफॉर्म नहीं मिला. वर्ष 2014 में एनडीए के तहत लोकसभा चुनाव लड़े और तीन सीटें जीतीं. उपेंद्र कुशवाहा मंत्री भी बने, लेकिन 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को दो सीटों पर ही संतोष करना पड़ा. बाद में वे महागठबंधन का भी हिस्सा बने, लेकिन 2020 के चुनाव के पहले ही वहां से अपने को अलग कर लिया. फिर कई दलों का गठबंधन बनाकर विधानसभा चुनाव में उतरे, पर उन्हें सफलता नहीं मिली.
बिहार में जदयू अतिपिछड़ा जाति को अपना आधार वोट मानता है. साथ ही लव-कुश समीकरण उसकी नींव है. इस विधानसभा चुनाव में रालोसपा का सफाया हुआ तो जदयू को भी अपेक्षित सीटें नहीं मिलने से झटका लगा है. चुनाव के बाद नीतीश कुमार जदयू को फिर से मजबूत संगठन और जनाधार की जमीन तैयार करने की कोशिश में लगे हैं. वहीं, उपेंद्र कुशवाहा को भी राजनीति में अपनी जमीन की फिर से तलाश है. इस तरह एक साथ आना दोनों की आवश्यकता है. इससे पहले नवंबर 2009 में उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी राष्ट्रीय समता पार्टी का विलय जदयू में किया था. उन्होंने अपनी पार्टी का गठन 2009 के जनवरी में ही किया था. इसके बाद वर्ष 2010 के शुरुआत में उपेंद्र कुशवाहा को जदयू ने राज्यसभा भी भेजा. पर, कुछ ही दिनों बाद उन्होंने पार्टी नेतृत्व के खिलाफ बयानबाजी शुरू कर दी. वर्ष 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में भी पार्टी के खिलाफ रहे. आखिरकार वर्ष 2013 में कुशवाहा ने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया और पार्टी से अलग हो गए. इसके बाद नयी पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का गठन किया.
नीतीश कुमार ने 2004 में उपेंद्र कुशवाहा नेता विपक्ष बनाया था
वर्ष 2004 में कुशवाहा को बिहार विधानसभा में विपक्ष का नेता नीतीश कुमार ने बनाया. वर्ष 2005 में हुए फरवरी और अक्टूबर दोनों विधानसभा चुनाव में कुशवाहा हार गए. बाद में जदयू के प्रदेश का प्रधान महासचिव बनाये गए. इसके बाद कुशवाहा 2006 में शरद पवार की पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए और बिहार प्रदेश के अध्यक्ष बने. वर्ष 2008 अक्टूबर में वे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से अलग हुए और फिर राष्ट्रीय समता पार्टी बनायी, जिसका विलय जदयू में हुआ.
हालांकि इस बार उपेंद्र कुशावहा की पार्टी के विलय को लेकर संकेतों में दोनों ओर से बातें की जा रही हैं. आधिकारिक तौर पर दोनों ही ओर से बयान नहीं दिया गया है, लेकिन जानकारों का मानना है कि यह प्रक्रिया जल्द ही पूरी होने वाली है. दोनों ही ओर से सहमति बन गई है. बस अब विलय होने कि तारीख का एलान होना शेष है.
अंकगणित में समझें बिहार का जातिगत वोट बैंक
जातिगत गठजोड़ में सीएम नितीश ने अपने लिए 10 % का फॉर्मूला सेट (जातिगत गणित का जिसमें कुर्मी 4 प्रतिशत, कोयरी करीब छह प्रतिशत) कर लिया है जिसके इधर से उधर होने की स्थिति में सियासी बैलेंस भी उसी अनुकूल हो जाता है. दरअसल बीजेपी और आरजेडी का अपना वोट बैंक है. सवर्ण जाति (ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, कायस्थ) के कुल वोट 17.2 प्रतिशत हैं और अगर 7.1 फीसदी वैश्य वोटर जोड़ दिए जाएं, तो यह 24.3% हो जाता है. लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में (क्रमश: 24.42% और 23.6%) यह वोट बैंक स्थिर नजर आता है. वहीं, आरजेडी के पास एम-वाय (मुस्लिम यादव) समीकरण है. 14.4 प्रतिशत यादव और 14.7 प्रतिशत मुस्लिम मिलकर 29.1 प्रतिशत हो जाता है.