डॉ निशा सिंह
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 के लिए सियासी दल अभी से ही राजनीतिक समीकरण ठीक करने में जुट गए हैं. सभी दलों की नजर ओबीसी समुदाय के वोटबैंक पर है.
उत्तर प्रदेश की सियासत में पिछड़ा वर्ग की अहम भूमिका अभी रहती आयी है. माना जाता है कि लगभग 50 फीसदी पिछड़ा वर्ग वोट बैंक जिस भी पार्टी के खाते में गया, सत्ता उसी की हुई है . 2017 के विधानसभा और 2014 व 2019 के लोकसभा में बीजेपी को पिछड़ा वर्ग का अच्छा सपोर्ट मिला. नतीजा वह केंद्र और राज्य की सत्ता पर मजबूती से काबिज हुई. ऐसे ही 2012 में सपा भी ओबीसी समुदाय के बलबूते ही सूबे की सत्ता पर काबिज हुई थी जबकि 2007 में मायावती ने दलित के साथ अति पिछड़ा दांव खेलकर ही चुनावी जंग फतह किया था. वर्तमान में बीजेपी, सपा, कांग्रेस और बसपा जैसी मुख्य पार्टियों के प्रदेश अध्यक्ष पिछड़ी जाति से हैं. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह कुर्मी जाति से आते हैं जबकि इसी जाति के नरेश उत्तम को सपा ने प्रदेश अध्यक्ष बना रखा है. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू हैं जो थवार अति पिछड़ी जाति से आते हैं और बसपा के प्रदेश अध्यक्ष भीम राजभर अति पिछड़े समुदाय के राजभर समाज से आते हैं.
उत्तर प्रदेश में 52 फीसदी ओबीसी (पिछड़ा वर्ग) वोट
उत्तर प्रदेश में सरकारी फाइलों में जातीय आधार पर पिछड़ा वोट बैंक का कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है, लेकिन एक अनुमान के मुताबिक यूपी में सबसे बड़ा वोट बैंक पिछड़ा वर्ग का ही है. लगभग 52 फीसदी पिछड़ा वोट बैंक में 43 फीसदी वोट बैंक गैर यादव बिरादरी का है, जो कभी किसी पार्टी के साथ स्थाई रूप से नहीं खड़ा रहता है. अभी तक का रिकॉर्ड बताता है कि पिछड़ा वर्ग के वोटर कभी सामूहिक तौर पर किसी एक पार्टी के पक्ष में भी वोटिंग नहीं करते हैं.ओबीसी समुदाय सूबे के चुनाव में अपना वोट जाति के आधार पर करता रहा है. यही वजह है कि छोटे हों या फिर बड़े दल, सभी की निगाहें इस वोट बैंक पर रहती हैं. ऐसे में उत्तर प्रदेश एक के बाद एक मिलती हार के बाद मायावती ने अपनी चुनावी रणनीति में परिवर्तन किया है. तमाम कोशिशों के बाद भी मुस्लिम वोटर बसपा के पाले में नहीं आ रहे थे. ऐसे में मायावती ने मुस्लिम वोटरों को लुभाने की बजाए करीब 52 फीसदी पिछड़ा वर्ग के वोटरों में से अति पिछड़ा वोट बैंक को साधने के लिए राजभर समुदाय से आने वाले भीम राजभर को पार्टी की कमान सौंपी है.
अखिलेश यादव की नजर कुर्मी वोटों पर है
उत्तर प्रदेश में यादव को छोड़कर अन्य पिछड़ी जातियों की सियासत काफी अलग खड़ी नजर आती है. यादव वोटर लंबे समय से ठीक वैसे ही सपा के साथ जुड़े हुए हैं जैसे दलित बसपा का दामन थामे हैं. यही कारण है कि अखिलेश यादव ने अपने पंरापरागत 9 फीसदी यादव वोट बैंक के साथ पिछड़े समुदाय के आने वाले दूसरी सबसे बड़ी आबादी कुर्मी को साधने के लिए नरेश उत्तम को सूबे में पार्टी की कमान दे रखी है. हालांकि, 2019 लोकसभा चुनाव में भी नरेश उत्तम ही पार्टी संभाल रहे थे, लेकिन कुर्मी समुदाय को सपा के पाले में लाने में सफल नहीं रहे हैं.
भाजपा की नजर गैर-यादव ओबीसी पर
गैर-यादव ओबीसी यूपी में काफी निर्णयक भूमिका में है, जिसे बीजेपी हर हाल में जोड़कर रखना चाहती है. गैर-यादव ओबीसी वोट बैंक की बात करें तो दूसरे नंबर पर पटेल और कुर्मी वोट बैंक आता है. बीजेपी ने कुर्मी समुदाय से ही स्वतंत्र देव सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बना रखा है तो मौर्या समाज के लिए डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य से लेकर स्वामी प्रसाद मोर्य तक बीजेपी के साथ खड़े हैं. यूपी में कुर्मी और मौर्या समाज करीब 13 फीसदी हैं. कुर्मी और मौर्य समुदाय को साधकर बीजेपी ने 2017 का चुनाव जीता था.
जातिगत आधार पर देखें तो यूपी के 16 जिलों में कुर्मी और पटेल वोट बैंक छह से 12 फीसदी तक है. इनमें मिर्जापुर, सोनभद्र, उन्नाव,बरेली जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर और बस्ती जिले प्रमुख हैं. वहीं, ओबीसी की मौर्या जाति का तेरह जिलों का वोट बैंक सात से 10 फीसदी है. इन जिलों में फिरोजाबाद, एटा, मैनपुरी, हरदोई, फर्रुखाबाद, इटावा, औरैया, कन्नौज, कानपुर देहात, जालौन, झांसी, ललितपुर और हमीरपुर हैं.
23 जिलों में ओबीसी भी निर्णायक भूमिका
ओबीसी में एक और बड़ा वोट बैंक लोध जाति का है, जो कि अब तक बीजेपी का परंपरागत वोट बैंक माना जाता है. यूपी के 23 जिलों में लोध वोटरों का दबदबा है, जिनमें रामपुर, ज्योतिबा फुले नगर, बुलंदशहर, अलीगढ़, महामायानगर, आगरा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, पीलीभीत, लखीमपुर, उन्नाव, शाहजहांपुर, हरदोई, फर्रुखाबाद, इटावा, औरैया, कन्नौज, कानपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर, हमीरपुर, महोबा ऐसे जिले हैं, जहां लोध वोट बैंक पांच से 10 फीसदी तक है. वहीं, मल्लाह समुदाय भी करीब 6 फीसदी है.
इनके अलावा ओबीसी वोट बैंक में करीब डेढ़ सौ और जातियां हैं, जिन्हें अति पिछड़ों की श्रेणी में रखा जाता है. इन्हें साधने की कवायद में कांग्रेस लगी हुई है. कांग्रेस ने इसीलिए अति पिछ़ड़ा समुदाय से आने वाले अजय कुमार लल्लू को पार्टी की कमान सौंप रखी है, जिनका पूरा जोर अति पिछड़ा वोटों को कांग्रेस के पाले में लाने का है. ऐसे में देखना है कि सूबे में ओबीसी समुदाय किस पर इस बार के चुनाव में भरोसा जताता है.
मायावती चारों तरफ से घिर चुकी हैं
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उत्तर प्रदेश की सियासत में 2012 के बाद से बसपा का ग्राफ नीचे गिरना शुरू हुआ. 2017 के चुनाव में उसने सबसे निराशाजनक प्रदर्शन किया. 2019 लोकसभा चुनाव नतीजे के बाद लग रहा था कि बसपा सपा को बेदखल कर मुख्य विपक्षी दल की जगह लेगी, लेकिन मायावती न तो सड़क पर उतरीं और न बीजेपी सरकार के खिलाफ उनके वो तेवर नजर आए जिनके लिए वो जानी जाती हैं. पार्टी कैडर और सूबे के आवाम के साथ उनका संवाद होता नहीं दिख रहा है. ऐसे में बसपा नेताओं को अपने सियासी भविष्य का डर सताने लगा है. 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से करीब 2 दर्जन से ज्यादा बसपा नेताओं ने पार्टी को अलविदा कहकर सपा का दामन थाम लिया. इसमें ऐसे भी नेता शामिल हैं, जिन्होंने बसपा को खड़ा करने में अहम भूमिका अदा की थी. बीएसपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दयाराम पाल, कोऑर्डिनेटर रहे मिठाई लाल पूर्व मंत्री भूरेलाल, इंद्रजीत सरोज, कमलाकांत गौतम और आरके चौधरी जैसे नाम है. अभी हाल ही में हाल ही में बसपा के पूर्व सांसद त्रिभुवन दत्त, पूर्व विधायक आसिफ खान बब्बू सहित कई नेताओं ने सपा की सदस्यता हासिल की है.
बसपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटें जीती थीं. राज्यसभा चुनाव के बीच बसपा के सात विधायकों ने पार्टी से बगावत कर दी है. इनमें असलम राइनी, असलम अली चौधरी, मुजतबा सिद्दीकी, हाकिम लाल बिंद, हरगोविंद भार्गव, सुषमा पटेल और वंदना सिंह जैसे विधायक के नाम शामिल हैं, जिन्होंने सपा प्रमुख अखिलेश यादव से मुलाकात भी की है. इस तरह से बसपा विधायकों की संख्या घटकर दहाई के अंक के नीचे आ गई है.
उत्तर प्रदेश में दलित मतदाता करीब 22 फीसदी हैं. अस्सी के दशक तक कांग्रेस के साथ दलित मतदाता मजबूती के साथ जुड़ा रहा, लेकिन बसपा के उदय के साथ ही ये वोट उससे छिटकता ही गया. इसके बावजूद बसपा का दलित कोर वोटबैंक है. यूपी में कांग्रेस की कमान प्रियंका गांधी के हाथों में आने के बाद से वह अपने पुराने दलित वोट बैंक को फिर से जोड़ने की रणनीति पर काम कर रही हैं. दलितों के मुद्दे पर कांग्रेस और प्रियंका गांधी लगातार सक्रिय हैं. इसके अलावा मायावती के दलित वोटर पर भीम आर्मी के चंद्रशेखर की नजर है
यूपी का 22 फीसदी दलित समाज दो हिस्सों में बंटा है. एक, जाटव जिनकी आबादी करीब 14 फीसदी है और जो मायावती की बिरादरी है. चंद्रशेखर आजाद भी जाटव हैं और मायावती की तरह पश्चिम यूपी से आते हैं. जाटव वोट बसपा का हार्डकोर वोटर माना जाता है, जिसे चंद्रशेखर साधने में जुटे हैं.
राज्य में गैर-जाटव दलित वोटों की आबादी तकरीबन 8 फीसदी है. इनमें 50-60 जातियां और उप-जातियां हैं और यह वोट विभाजित होता है. हाल के कुछ वर्षों में दलितों का उत्तर प्रदेश में बीएसपी से मोहभंग होता दिखा है. गैर-जाटव दलित मायावती का साथ छोड़ चुका है. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में गैर-जाटव वोट बीजेपी के पाले में खड़ा दिखा है, लेकिन किसी भी पार्टी के साथ स्थिर नहीं रहता है. इस वोट बैंक पर कांग्रेस की नजर है. हाल के दिनों में कांग्रेस ने जिस तरह से यूपी में गैर-जाटव दलितों को संगठन में तरजीह दी है उससे मायावती के लिए आने वाले समय में चुनौती खड़ी हो सकती है.