डॉ. निशा सिंह
बिहार की राजनीति पिछले 30 वर्षों से जातिय राजनीति के इर्द-गिर्द सीमित है. मंडल कमीशन ने देश ही नहीं समाज में जातिय दरार का ऐसा बीज बोया कि वोट राजनीति पूरी तरह से जातिय राजनीति में तब्दील हो गया. बिहार में इसका व्यापक असर पड़ा. लालू यादव ने सत्ता में रहते हुए जातिय राजनीति का ऐसा नंगा नाच नचाया कि जाति का विभाजन सामाजिक स्तर पर हो गया. एक तरफ सवर्ण हो गये तो दूसरी तरफ मुस्लिम-यादव और पिछड़े-दलित आमने-सामने आ गये. 15 वर्ष के शासन के दौरान लालू-राबड़ी का राज-पाट जंगल राज और जातिय राजनीति के तौर पर जाना गया.
इसके बाद राजनीति ने करवट ली और नीतिश कुमार के नेतृत्व में पिछले 15 सालों से सरकार चल रही है.
नितीश कुमार के राज पाट में शुरू में लगा कि बिहार में विकास हो जायेगा, लेकिन समय के साथ बिहारवासियों का ये सपना भी धरा रह गया. सरकार चलने के लिए गठबंधन की राजनीति ने विकास को पीछे छोड़ दिया. अब सत्ता में बने रहने की राजनीती हावी है. यानि जोड़-तोड़ की राजनीति (जातीय राजनीति) अब विकास की राजनीति पर भारी पड़ रही है.
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में भी विकास की जगह जातिय राजनीति हावी रहेगी. इसका कारण है कि बिहार में न तो विकास हुआ, न ही माहौल बदला और न ही लोग जाति की राजनीति से उपर आये. अंतिम दिन विकास पर जाति का समीकरण भारी पड़ता है, इसलिए राजनीतिक दल जातीय समीकरण को ध्यान में रखकर उम्मीदवार उतारते हैं.
यहां की राजनीति में जाति का गणित काफी अहम है. हर दशक में अलग-अलग जातियां चुनावी दिशा को तय करती हैं. 1977 तक बिहार की सियासत में सवर्णों का बोलबाला रहा, लेकिन बाद के वर्षों में सवर्णों की जगह दलित और पिछड़ी जातियों ने ले ली और अब राजनीति भी दलित और पिछड़ों के इर्द-गिर्द तक सिमटी है.
कभी राजनीति के शीर्ष में अहम भूमिका निभाने वाला सवर्ण समुदाय अब राजनीति में सिर्फ रस्म अदायगी भर की होकर गई है. श्रीकृष्ण सिंह, दीप नारायण सिंह, बिनोदानंद झा, केदार पांडेय, बिन्देश्वरी दूबे, भागवत झा आजाद, जगन्नाथ मिश्र आदि ऐसे नाम हैं, जिन्होंने बिहार में मुख्यमंत्री पद के तौर पर राज किया और ये सभी सवर्ण समुदाय से थे.
अप्रैल 1946 से 1977 तक बिहार में (कुछ समयों को छोड़कर) सवर्ण जाति के मुख्यमंत्री रहे. बिहार की राजनीति में सवर्ण तबका प्रभावशाली था और सत्ता का चक्र इनके इशारों पर चलता रहा. 1977 के बाद बिहार की राजनीति से सवर्ण समुदाय का वर्चस्व खत्म होने लगा और मंडल कमीशन के बाद सवर्ण समुदाय की भूमिका काफी सीमित हो गई. जगन्नाथ मिश्रा बिहार के सवर्ण जाति से अंतिम मुख्यमंत्री थे.
1990 में लालू यादव मुख्यमंत्री बने और तब से लेकर अब तक बिहार में पिछड़ी या ओबीसी समुदाय से मुख्यमंत्री हैं. जहां लालू प्रसाद यादव की पहचान सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर होती है, वहीं नीतीश कुमार की पहचान बिहार को विकास की नई पहचान देने वाले सीएम के तौर पर होती है. ऐसा नहीं है कि बिहार में सवर्ण कोई फैक्टर नहीं हैं और उदारीकरण के दौर के जातियों का बंधन टूटा.
सवर्ण जातियों को छोड़कर दूसरी जातियों में ये बात घर करने लगी है कि जिसकी जितने भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी. मध्यम वर्ग में अधिकतम संख्या सवर्ण समुदाय की होती है और जैसे-जैसे उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण का प्रभुत्व बढ़ता गया, सवर्ण समुदाय ने खुद को ड्राइंग रूम की राजनीति में समेट लिया. बिहार में फिलहाल जनता दल यूनाइटेड और भाजपा की संयुक्त सरकार है.
सवर्ण समुदाय का परंपरागत रूझान कांग्रेस से शिफ्ट होकर बीजेपी की तरफ हो गया है और ये आज की तारीख में बीजेपी का बड़ा राजनीतिक आधार है. बिहार में लंबे समय तक जब पढ़े लिखे लोगों को काम नहीं मिलने लगा तो ये लोग भारत के दूसरे शहरों में शिफ्ट हो गये और वहीं जाकर बस गए. नतीजतन गांव का गांव खाली हो गया. राजनीति में वोट की ताकत का महत्व है और जब सवर्ण समुदाय का बड़ा हिस्सा देश के दूसरे शहरों में बस गया तो सियासी दलों ने भी उनकी पूछ कम कर दी.
मंडल आंदोलन ने बिहार में सवर्ण राजनीति की कमर तोड़ दी. पिछड़ी जातियों में ये संदेश भेजा गया कि जब जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी सवर्णों से कहीं ज्यादा है तो मुख्यमंत्री भी पिछड़ी, दलित या फिर ओबीसी समुदाय से ही क्यों न हो ? बिहार में सवर्णों का प्रतिशत 11.60 फीसदी है. 2014 के एक अनुमान के मुताबिक, भारत में लोकसभा की 125 सीटें ऐसी हैं जहां सवर्ण तबका वोट के लिहाज से मायने रखता है. फिलहाल बिहार में जातीय आधार पर फिर नतीजे आएंगे.