बिहार के 35 साल : नीतीश कुमार का शासन -पार्ट-1, मात्र साथ दिन ही रहे मुख्यमंत्री

Bihar Politics: बिहार में इसी साल अक्टूबर में विधान सभा चुनाव होंगे. चुनाव में जीत-हार जिनकी भी हो, लेकिन इस दफे सबसे बड़ा सियासी घटनाक्रम देखने को मिल सकता है. एनडीए की सरकार कंटिन्यू करती है या विपक्षी महागठबंधन सत्ता में आयेगी ? मुकबला कांटे का होगा, लेकिन जो सबसे दिलचस्प है वो कि, क्या इस बार भी नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल कर पायेंगे ? बीजेपी क्या नीतीश कुमार आगे भी मुख्यमंत्री पद पर रख सकती है ? क्या चुनाव परिणाम के बाद नीतीश-लालू के मकड़जाल से बिहार बाहर निकल सकता है ?

बिहार की राजनीति में 1990 से लेकर 2025 तक यानि करीब 35 साल से लालू-नीतीश कुमार की सत्ता बरक़रार है. लालू- राबड़ी ने 15 साल राज किया तो नीतीश कुमार 2005 से लगातार सत्ता में हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहे, चाहे गठबंधन किसी के साथ रहा. यानि बिहार में पिछले 35 साल से लालू-नीतीश के कब्जे में है. 90 के दशक के पहले कांग्रेस का शासन बिहार में था. कांग्रेस का अंतिम मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा थे. बिहार में 1990 से 2005 तक लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी का शासन रहा था. बीच में 2000 में नीतीश कुमार केवल सात दिनों के लिए मुख्यमंत्री रहे थे. वे बिहार के सबसे लंबे समय तक रहने वाले मुख्यमंत्री हैं.

गठबंधन किसी के साथ रहा, मुख्यमंत्री नीतीश ही रहे (2005 से 2025)

नीतीश कुमार 3 मार्च 2000 को शपथ लेकर पहली बार मुख्यमंत्री बने. उस वक्त नीतीश समता पार्टी में थे. यह सरकार महज सात दिन ही चली. इस दौरान बीजेपी का समर्थन उन्हें हासिल हुआ था. केंद्र में अटल बिहारी वाजपई प्रधानमंत्री थे. लालू यादव ने नीतीश सरकार को मात्र साथ दिनो में चलता करवा दिया था. इसके बाद राजद की सत्ता रही. इसके बाद 24 नवंबर 2005 में नीतीश कुमार ने भाजपा-जदयू के गठबंधन में राजग (एनडीए) की सरकार बनाई. नीतीश दूसरी बार मुख्यमंत्री बने. नीतीश कुमार ने इसके बाद तीसरी बार 26 नवंबर 2010 को एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. उनकी यह सरकार भी भाजपा-जदयू के गठजोड़ वाली थी. राजग के साथ यह उनकी तीसरी पारी थी. मई 2014 में, उन्होंने पद छोड़ दिया, लेकिन आठ महीने बाद वापस लौटे, अपने तत्कालीन शिष्य जीतन राम मांझी को हटाकर नवंबर 2015 में सीएम बने, जब जेडी(यू), आरजेडी और कांग्रेस के गठबंधन ने विधानसभा चुनाव जीता. हालांकि, इसके बाद 22 फरवरी 2015 में नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी जदयू की सरकार का गठन किया और मुख्यमंत्री बने. इसके दस महीने बाद 20 नवंबर 2015 में नीतीश कुमार फिर मुख्यमंत्री बने. परंतु, इस बार जदयू अकेली नहीं थी. यहां लालू यादव की पार्टी राजद के साथ उन्होंने महागठबंधन की सरकार बनाकर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. यह पहली बार था, जब जदयू और लालू यादव की पार्टी राजद सत्ता में साथ आई थीं. लालू प्रसाद के चंगुल से आजाद होने के लिए नीतीश कुमार ने 26 जुलाई 2017 को एक बार फिर राजद को छोड़कर राजग के साथ सरकार बनाई. सत्ता में जदयू-भाजपा शामिल रहीं. राजग की यह सरकार ढाई साल चली थी. इसके बाद 16 नवंबर 2020 को विधानसभा चुनावों के बाद नीतीश कुमार ने फिर से जदयू-भाजपा (एनडीए) की सरकार बनाई और मुख्यमंत्री बने. करीब दो साल बाद जदयू-भाजपा के रिश्तों में खटास आ गई. नीतीश ने 10 अगस्त 2022 को फिर से लालू यादव की पार्टी का दामन थाम लिया. उन्होंने जदयू-राजद को गठजोड़ से महागठबंधन की सरकार बना ली और मुख्यमंत्री बन गए. बिहार में 2022 के बाद महागठबंधन की सरकार करीब दो साल चली. नीतीश कुमार ने एक बार फिर यू टर्न लिया. 28 जनवरी 2024 को जदयू-भाजपा (एनडीए) की नई सरकार बना ली है. इस तरह नीतीश कुमार ने नौंवी बार बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ग्रहण की. यही सरकार वर्तमान में चल रही है.

जानिए नीतीश कुमार का प्रथम कार्यकाल (वर्ष 2000) : मात्र सात दिनों तक रहे मुख्यमंत्री

नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद की पहली बार शपथ मार्च 2000 में ली थी, लेकिन वह केवल सात दिन ही इस पद पर रह सके थे. आखिर क्या हुआ था जब सदन में बहुमत साबित नहीं कर सके थे नीतीश कुमार. 24 साल पहले 3 मार्च, 2000 को नीतीश कुमार ने पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. हालांकि, उनकी यह सरकार सात दिनों तक ही चल पायी. वे केवल सात दिनों ही इस पद पर रह सके थे. जब विधानसभा में बहुमत साबित करने की बारी आई तब वह इसमें नाकाम रहे थे और उन्हें मजबूरन इस्तीफा देना पड़ा था. यह मार्च, 2000 की बात है, जब भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन एनडीए का हिस्सा रही समता पार्टी के नेता नीतीश कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे.

करीब ढाई दशक पहले, बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के शासनकाल को ‘जंगलराज’ का नाम देकर चुनाव लड़ा. चुनावी मैदान में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और विपक्षी खेमा एनडीए, दोनों के लिए ही चेहरा लालू प्रसाद यादव थे. राजद ने उन्हें ‘गरीब-गुरबों का मसीहा’ कहकर पेश किया और एनडीए ने ‘जंगलराज का नेता’ बताकर. लालू यादव ने विरोधियों से मिली इस पहचान को कुछ यूं रंग दिया कि उनके समर्थक गर्व ही करने लगे. 26 फरवरी को बिहार विधानसभा चुनाव-2000 के नतीजे जब आए तो जनमत किसी के हक़ में नहीं था. सबसे बड़ी पार्टी लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) बनी थी, 123 सीटों के साथ. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के खाते में थीं 122 सीटें. कांग्रेस के 23 विधायक चुने गए थे और अन्य के पास 56 सीटें थीं. यानी एक लटका हुआ नतीजा क्योंकि तब 324 विधानसभा सीटों वाले बिहार में सरकार बनाने के लिए 163 सीटें ज़रूरी थीं.

नतीजे मनमुताबिक नहीं आने के बावजूद लालू परिवार, उनकी पार्टी और समर्थक खुश थे. क्योंकि तमाम तिकड़म के बावजूद एनडीए की सीटें राजद से कम रह गई थीं. 26 फरवरी को बढ़ते वक़्त के साथ 1 अणे मार्ग पर लालू समर्थकों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी. लालू यादव खुद राघोपुर और दानापुर की सीट से चुनाव लड़ रहे थे. परिणाम आया कि दोनों ही सीटें उनकी झोली में गिर गई हैं. 27 फरवरी को एनडीए ने लालू के पुराने दोस्त रहे नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया और नए बने रहे समीकरण से लालू परेशान थे कि राज्यपाल विनोद चंद्र पांडेय सरकार बनाने के लिए किसे न्यौता देंगे. सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद राजद को बुलावा नहीं मिला, बल्कि एनडीए को मौका मिला. 3 मार्च को राज्यपाल ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. अब नीतीश और एनडीए के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी विधानसभा में बहुमत साबित करने की थी.

कांग्रेस इस चुनाव में राजद के साथ नहीं थी और ना ही वामपंथी पार्टियां, लेकिन लालू यादव को यह भरोसा था कि सेक्यूलरिज्म के मुद्दे पर इन दोनों गुटों के विधायक उनकी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए समर्थन देंगे. नीतीश कुमार सियासी गणित के भरोसे थे. एनडीए ये मान कर चल रहा था कि कांग्रेस में टूट होगी और 10 विधायक उनके साथ आ जाएंगे. 10 निर्दलीय विधायकों को लेकर भी वे यही सोच रहे थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. समर्थन के लिए एनडीए के बड़े नेता और नीतीश कुमार खुद विधायकों से मेल-जोल करने लगे. कांग्रेसी विधायकों के लालू विरोधी गुट से संपर्क की कवायद होने लगी. दरअसल कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व किसी भी हाल में लालू यादव के समर्थन में नहीं जाना चाहता था.

अख़बारों में ये खबर प्रमुखता से छप रही थी. बिहार की राजनीति में और शायद यही कारण है कि गणित के जाल में राजग (एनडीए) के नेता नीतीश कुमार मुख्यमंत्री तो आनन-फानन में बन गए मगर बहुमत का आंकड़ों से दूर थी. दरअसल जैसे ही राज्यपाल ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई लालू यादव ने बिहार बंद का आह्वान कर दिया. राजद समर्थकों ने रेल की पटरी उखाड़नी शुरू कर दी. कई जगहों पर हिंसक प्रदर्शन होने लगे. एक तरफ सड़क पर उनके समर्थक ये सब कर रहे थे, दूसरी ओर लालू यादव कांग्रेस आलाकमान से मिलने दिल्ली पहुंच गए. बिहार से प्रकाशित अख़बार ने लिखा था कि नीतीश कुमार के हल एक्शन पर लालू को एकदम ख़बर रहती थी. नीतीश कुमार के लिए इकलौता एडवांटेज ये था कि वो सत्ता में थे, जिसका अर्थ है कि ‘तंत्र’ उनके हाथ में था. फिर भी लालू ने पुराने वफादार अधिकारियों के बूते नीतीश को सत्ता में होने का जो फायदा मिलता उसे बेअसर कर दिया था.

राजनीतिक प्रबंधन के इस खेल में छल-कपट, धोखाधड़ी, बाहुबल और प्रलोभन सब शामिल था और यहां नीतीश कुमार टिक ना सके. जुमा-जुमा सात दिन तक ही वे मुख्यमंत्री रहे. 10 मार्च 2000 को विधानसभा में बजट पेश करने के बाद विश्वास मत पाए बिना ही पहली बार मुख्यमंत्री बने नीतीश ने इस्तीफा सौंपा दिया क्योंकि 10 मार्च तक उनके पास 147 विधायकों का ही समर्थन था, जो कि 163 के जादुई संख्या से 16 कम था. नीतीश कुमार के इस्तीफे के अगले ही दिन राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. इस तरह राबड़ी का शासन पुरे पांच साल का रहा. 2005 में बिहार विधान सभा चुनाव हुआ. ये साल ऐसे रहा जहाँ बिहार में दो बार विधान सभा चुनाव हुए. पहले बार किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिली, फिर से चुनाव हुए तो नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. फरवरी 2005 के बाद बिहार की सत्ता में नीतीश कुमार को पूर्ण रूप से काबिज होने में एक चुनाव और लग गया. ये ‘चुनाव’ नीतीश के सामने मात्र 7 महीने बाद फिर आ गया. साल 2005 में दो बार विधानसभा चुनाव हुए. दरअसल यह पहली बार था, जब कोई भी राजनीतिक दल बहुमत साबित करने में कामयाब नहीं हो सका, इसके पीछे बड़ी वजह जेडीयू और एलजेपी (JDU-LJP) के बीच टकराव की स्थिति थी. विधानसभा चुनाव में एलजेपी को 178 सीटों में से 29 सीटों पर जीत हासिल हुई. कहा तो ये भी जाता है कि नीतीश किसी मुस्लिम उम्मीदवार को मुख्यमंत्री बनाने के फैसले पर पासवान का समर्थन चाहते थे, लेकिन एलजेपी ने उन्हें समर्थन देने से इनकार कर दिया था. इसी के चलते 2005 अक्टूबर-नवंबर में राज्य में दोबारा विधानसभा चुनाव हुए थे.

क्रमश : आगे पढ़ियेगा नीतीश कुमार का शासन -पार्ट-2, जब लालू -राबड़ी के जंगल राज को उखाड़कर बने मुख्यमंत्री (वर्ष 2005).

2005 में बिहार में लालू-राबड़ी राज का अंत हुआ, लेकिन सत्ता पर काबिज के लिए रामविलास पासवान ने नीतीश को सपोर्ट नहीं किया, जिसके चलते इस साल दोबारा विधान सभा चुनाव हुआ. दूसरी बार में नीतीश कुमार को जीत हासिल हो गयी और वे मुख्यमंत्री बने. इसी के बाद अब तक वे मुख्यमंत्री बने रहे हैं, बीच में पाला भी बदला, लेकिन मुख्यमंत्री पद नीतीश कुमार के पास ही रहा है.

डॉ. निशा सिंह ।

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